Thursday, December 20, 2007

अपूर्ण कविता

अंकुर सम जन्मे हो तुम,
अब व्रक्ष रूप भी बन जाओगे,
लेकिन जब पतझङ आयेगा
पत्ता-पत्ता झङ जाओगे
जैसे भोर भये दिन चढता
सांझ भये फिर ढल जाता है
जीवन हो तुम एक दिवस के
सांझ के जैसे ढल जाओगे