Sunday, December 2, 2007

धूप-छांव्

अमवा की छाया है मन अति भाया है
,सुन्दर सलोना अनपढ जैसा नाम है
बङे बङे शहरों मे देख के प्रदूषणों को
आज् मुझे याद आता फिर मेरा गांव है,
खग कहुं बोल रहे श्वान कहुं डोल रहे
भोर भये कागन की वही कांव कांव है
ना ही कोइ गाङी यहां ना ही कल कारखाने
शोर धुआं गन्दगी का नाम ना निशान है
खुले खुले घर यहां स्वच्छ जल वायु भी है
उजले मनों के श्याम तन की भी शान है
रिमझिम बरखा मे टपके जो छत चाहे
सोवें सब बेखटक बरसाती तान हैं
ललुआ चराये भैंस कलुआ है बाग मे
ददुआ उठाये रोटी जात खलिहान हैं
एक छोटा मेला लगे कुल्फी का ठेला लगे
आइस्क्रीम पार्लर वही आलीशान है
छोटी छोटी ख्वाहिशें हैं छोटी फरमाइशें हैं
रूस का भविष्य लेके कक्का परेशान हैं
सभी भाई भाई यहां रहें सब हिल मिल
इत शहरों को देख हम हैरान है
बङी सी कालोनिय़ां हैं बन्द बन्द कमरे हैं
तन हैं थके थके से मन परेशान हैं
धूप हवा पानी नहीं एक मीठी बानी नहीं
लङने झगङने मे लोगन की शान है
दुनियां की धूप कहीं कितनी म्रदुल् और
कितनी कठोर कहीं कहीं कोइ छांव है
यही धूप छाया देख् शहरों की माया देख,
आज मुझे याद आता फिर मेरा गांव है.....

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