जीवन क्यों तुम बीत रहे हो
व्यर्थ अनर्थ सी बातों में
रात सी काली शंकाओं मे
भाग्य अभाग्य के खातों मे
कल था निर्धन आज धनी मैं
कल का धनी अब निर्धन क्यों हूं
ये रिश्ता है वो रिश्ता है
रिश्तों मे बंध जाता क्यों हूं
अति तनाव के वो क्षण काले
आत्मा तक मे लगते छाले
लेकिन जिनसे तनाव बढता
उनसे ही क्यों लगाव बढता???????
कर्तव्यों मे घिरा हुआ सा
मुक्ति की आशा क्यों करता मै
सबसे निर्भय दिखने वाला
अपने आप से क्यों डरता मै
जीवन भर का जोङ घटाना
शून्य साथ मे ले कर जाना
फिर भी जीवन गणित ना समझा
जाने किन पन्नों मे उलझा
उलझन उलझन उलझन उलझन
जीवन क्या तुम उलझन ही हो
या फिर चिन्ताओं मे डूबे
थके हुए टूटे मन ही हो
अगर तुम्हें कुछ पता लगे तो
तुम ही आ कर के बतलाना
जीवन क्या है-जीवन क्यूं है
जीवन क्योंकर बीत रहा है
Sunday, December 2, 2007
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