Sunday, December 2, 2007

उलझन

जीवन क्यों तुम बीत रहे हो
व्यर्थ अनर्थ सी बातों में
रात सी काली शंकाओं मे
भाग्य अभाग्य के खातों मे
कल था निर्धन आज धनी मैं
कल का धनी अब निर्धन क्यों हूं
ये रिश्ता है वो रिश्ता है
रिश्तों मे बंध जाता क्यों हूं
अति तनाव के वो क्षण काले
आत्मा तक मे लगते छाले
लेकिन जिनसे तनाव बढता
उनसे ही क्यों लगाव बढता???????
कर्तव्यों मे घिरा हुआ सा
मुक्ति की आशा क्यों करता मै
सबसे निर्भय दिखने वाला
अपने आप से क्यों डरता मै
जीवन भर का जोङ घटाना
शून्य साथ मे ले कर जाना
फिर भी जीवन गणित ना समझा
जाने किन पन्नों मे उलझा
उलझन उलझन उलझन उलझन
जीवन क्या तुम उलझन ही हो
या फिर चिन्ताओं मे डूबे
थके हुए टूटे मन ही हो
अगर तुम्हें कुछ पता लगे तो
तुम ही आ कर के बतलाना
जीवन क्या है-जीवन क्यूं है
जीवन क्योंकर बीत रहा है

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